VERSAILLES TREATY





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वर्साय की सन्धि प्रथम विश्व युद्घ के अन्त में जर्मनी और गठबन्धन देशों (ब्रिटेनफ्रान्सअमेरिकारूस आदि) के बीच में हुई थी।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पराजित जर्मनी ने 28 जून 1919 के दिन वर्साय की सन्धि पर हस्ताक्षर किये।[1] इसकी वजह से जर्मनी को अपनी भूमि के एक बड़े हिस्से से हाथ धोना पड़ा, दूसरे राज्यों पर कब्जा करने की पाबन्दी लगा दी गयी, उनकी सेना का आकार सीमित कर दिया गया और भारी क्षतिपूर्ति थोप दी गयी।
वर्साय की सन्धि को जर्मनी पर जबरदस्ती थोपा गया था। इस कारण एडोल्फ हिटलर और अन्य जर्मन लोग इसे अपमानजनक मानते थे और इस तरह से यह सन्धि द्वितीय विश्वयुद्ध के कारणों में से एक थी।


वर्साय की संधि एवं द्वितीय विश्वयुद्ध

विश्व इतिहास के जिन एक संधियों और उसके प्रभावों की सर्वाधिक चर्चा हुई है, उनमें वर्साय की संधि का विशिष्ट स्थान है। उस संधि के कठोर प्रावधानों और उसके स्वरूप के संदर्भ में आलोचकों ने इसे द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार वार्साय की संधि शांति की व्यवस्था न होकर असंतोष की जनक थी। संधि के ठीक 20 वर्ष 2 महीने 4 दिन पश्चात् यह संसार द्वितीय विश्वयुद्ध के चपेट में आ गया।
संधि होने के बाद से ही उसकी व्यवस्थाओं को जर्मनी द्वारा भंग किया जाता रहा। साथ ही संधि प्रावधानों में संशोधन भी किए जाते रहे। इन संधि प्रावधानों के उल्लंघनों एवं संशोधनों ने संसार को द्वितीय विश्व युद्ध की ओर ढकेल दिया। संधि प्रावधानों का उल्लंघन एवं संशोधन इसलिए किया गया कि यह अत्यधिक कठोर एवं अपमानजनक थी। ऐसी कठोर एवं अपमानजनक संधि की शर्तों को कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र एक लंबे समय तक बर्दाश्त् नहीं कर सकता था। अतः यह स्पष्ट था कि जर्मनी भविष्य में उपर्युक्त अवसर मिलते ही वर्साय संधि द्वारा थोपी गई व्यवस्था से मुक्त होने तथा अपमान के कलंक धोने का प्रयास करेगा। जर्मनी की कैथोलिक सेंटर पार्टी के एजर्बर्गर का विराम संधि के समय वक्तव्य था कि "जर्मन जाति कष्ट सहेगी परंतु मरेगी नहीं।" स्वभाविक रूप से जर्मनी ने इस अपमानजनक शर्तों को धोने का सफल प्रयास किया। परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में यूरोप का राजनीतिक वातावरण अत्यंत अशांत हो गया और विश्व को प्रथम महायुद्ध से भी अधिक भयंकर और प्रलयंकारी युद्ध देखना पड़ा। फ्रांस के मार्शल फॉच के अनुसार भी "यह संधि शांति नहीं है, केवल 20 वर्षों का युद्धविराम है।" स्पष्ट है कि इसी संधि में द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज विद्यमान थे।
1919 में संधि के समय जर्मनी असहाय था और संधि के चुपचाप स्वीकार करने के अलावा उसके पास कोई चारा न था लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे वह कुछ शक्ति संचय करके संधि की शर्तों का उल्लंघन करने लगा और संधि निर्माताओं ने भी उसमें संशोधन किए। 1926 में जब जर्मनी को राष्ट्रसंघ की सदस्यता दी गई तब संधि के प्रथम भाग में संशोधन किया गया। युद्ध अपराधियों संबंधी सातवां भाग कभी पूर्णतः क्रियान्वित नहीं किया गया। जर्मन सम्राट विलियम कैसर सहित अनेक युद्ध अपराधियों को दण्ड न देकर महज कुछ एक को सामान्य दण्ड दिए गए। क्षतिपूर्ति से संबंधित प्रावधान को पहले तो संशोधित किया गया और बाद में पूर्णतः त्याग दिया गया। लोजान सम्मेलन (1932) में क्षतिपूर्ति के प्रश्न को ही समाप्त कर दिया गया।
1933-34 में जर्मन राजनीति में हिटलर के उत्कर्ष के बाद वार्साय की शर्तों को तोड़ना तो एक मामूली बात हो गई। 1935-36 में हिटलर ने संधि के निःशस्त्रीकरण से संबंधित प्रावधानों का उल्लंघन कर सेनाओं में वृद्धि की और 1936 में राईनलैंड पर अधिकार कर लिया। मार्च 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी के साथ मिलाकर तथा सितम्बर 1938 चेकोस्लोवाकिया को मिलाकर हिटलर ने वार्साय की संधि के प्रादेशिक व्यवस्थाओं के प्रावधानों को भंग कर दिया। जब हिटलर ने वर्साय संधि द्वारा निर्मित पोलैण्ड से संबंधित पोलिश गलियारे एवं डान्जिंग बंदरगाह संबंधी व्यवस्थाओं को तोड़ने के उद्देश्य से पोलैंड पर आक्रमण किया तो द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। कुछ मिलाकर वर्साय संधि की अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं को तोड़ने के लिए ही हिटलर ने घटनाओं की वह शृंखला आरंभ की जिसके कारण द्वितीय विश्वयुद्ध का विस्फोट हुआ। इस तरह वर्साय की संधि प्रावधानों के उन्मूलन की प्रक्रिया की अंतिम परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ में हुई। इस दृष्टि से द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज वर्साय की संधि में देखे जा सकते हैं।
कुछ आलोचक मानते हैं कि वर्साय संधि की कठोर शर्ते नहीं बल्कि उनको क्रियान्वित करने की ढिलाई द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। लॉगसम के अनुसार-
मित्र राष्ट्रों, विशेष कर फ्रांस और ब्रिटेन के परस्पर विरोध तथा संधि की शर्तों का कठोरतापूर्वक पालन न कर पाने की नीति ही द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। यदि संधि का पालन कठोरतापूर्वक पालन कराया जाता तो जर्मनी को यह अनुभव हो जाता कि भविष्य में युद्ध प्रारंभ करना खतरनाक है। लेकिन मित्र राष्ट्रों की उदासीनता एवं तुष्टीकरण की नीति से जर्मनी का हौंसला बढ़ता गया और उसने पुनः युद्ध कर दिया। 1936 में जब हिटलर ने राइनलैण्ड के असैनिकीकरण के प्रावधान को भंग किया, तब इंग्लैण्ड और फ्रांस आसानी से उसकी आक्रामक महात्वाकांक्षाओं का दमन कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा न कर हिटलर के साहस को प्रोत्साहन दिया और अप्रत्यक्ष रूप से उसकी शक्ति में वृद्धि की। मित्र राष्ट्रों ने हिटलर द्वारा संधि की शर्तों को तोड़ने के प्रति जो उदासीनता, उपेक्षा और कायरता दिखाई, उससे उत्साहित होकर हिटलर एक के बाद एक संधि प्रावधानों को तोड़ता और प्रदेश अधिकृत करता चला गया।”
इस प्रकार इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्साय की अन्यायपूर्ण कठोर और अपमानजनक संधि, एक सीमा तक द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी थी। किन्तु यह भी सत्य है कि मित्र राष्ट्रों की परस्पर विरोधी नीति, उपेक्षा, उदासीनता, तुष्टीकरण और संधि की शर्तों को कठोरतापूर्वक लागू न करवाने की नीति भी इसके लिए कम उत्तरदायी नहीं थी।

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