‘एक राष्ट्र एक चुनाव’

‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ अपरिहार्य

सुरेन्द्र किशोर
जिस देश के अधिकतर सरकारी अस्पतालों में रूई और सूई तक भी उपलब्ध नहीं है क्योंकि सरकारों के पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं।जिस देश के करीब 20 करोड़ गरीबों को एक ही जून का भोजन नसीब है। जिस देश के सरकारी स्कूलों में अब भी बेंच-कुर्सयिों की भारी कमी है क्योंकि सरकारें घाटे के बजट पर चलती हैं। उस देश के अनेक दलों और नेताओं की यह राय है कि भले हजारों करोड़ रु पये टालने योग्य चुनावों में पानी में बहा दिए जाएं, पर लोक सभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ नहीं होने चाहिए क्योंकि उससे लोकतंत्र और संघवाद संकट में पड़ जाएंगे। विधायिकाओं में क्षेत्रीय भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाएगा। एक साथ चुनाव संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। न जाने और कितनी बेसिर पैर की बातें! ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के विरोधी नेतागण यह भूल जाते हैं कि आजादी के बाद के प्रथम चार आम चुनाव एक ही साथ हुए थे। तब किसी प्रतिपक्षी नेता ने ऐसे सवाल नहीं उठाए क्योंकि तब के नेतागण संभवत: इतने गैर-जिम्मेदार नहीं थे।
इस तरह कुल मिलाकर स्थिति यह है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर कतिपय प्रतिपक्षी दल आज राजी होने वाले नहीं हैं, जबकि एक साथ चुनावों से इस गरीब देश को हजारों-हजार करोड़ रु पये की बचत का लाभ मिल सकता है। सत्तर के दशक में एक राष्ट्र, दो चुनाव की परंपरा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऐसे समय में डाली थी, जब उनकी पार्टी का लोक सभा में बहुमत तक नहीं था। आरोप लगा था कि राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर उन्होंने वैसा किया था। तब द्रमुक और कम्युनिस्टों के सहारे उनकी सरकार चल रही थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह लग गया था कि देर से चुनाव कराने पर ‘गरीबी हटाओे’ के उनके नारे से मिली उनकी लोकप्रियता को भुनाया नहीं जा सकेगा। पर आज नरेन्द्र मोदी की पार्टी को तो लोक सभा में पूर्ण बहुमत है। राजग के अन्य दलों को जोड़ें तो भारी बहुमत है। राजग को अगले साल संभवत: राज्य सभा में भी बहुमत मिल जाए। इसलिए यह सरकार देशहित में यह काम कर सकती है। यदि नहीं करेगी तो वह वादाखिलाफी करेगी। फिर से एक साथ चुनाव कराने का यह मतलब भी होगा 1970-1971 की भूल को सुधारा जा रहा है।
जनता से टैक्स में मिले हजारों करोड़ रु पये को अनावश्यक कामों में खर्च कर देना, आम लोगों के साथ अपराध ही माना जाएगा। मौजूदा सरकार उस अपराध से बचना चाहती है। उसे बचना भी चाहिए। इतने पैसे बचाने के लिए किसी जनपक्षी सरकार को कोई भी राजनीतिक खतरा मोल लेने को तैयार रहना चाहिए। हालांकि इस काम में कोई भी खतरा नजर नहीं आ रहा। लोकप्रियता ही मिलेगी। इस देश के जिन राजनीतिक दलों ने राजनीति को व्यापार बना रखा है, उनके लिए तो अधिक चुनाव यानी अधिक चंदा यानी उस बहाने निजी धन की अधिक कमाई। अब तो कुछ दलों को टिकट बेचने से भी अलग से आय हो रही है। पर, सारे दल एक जैसे नहीं हैं। कई विवेकशील दल वन नेशन, वन इलेक्शन के लक्ष्य की प्राप्ति में सरकार को सहयोग देने को तैयार हैं। सन 1967 तक जब साथ-साथ चुनाव हो रहे थे तो लोकतंत्र पर कोई खतरा नहीं था। पर अब कुछ स्वार्थी नेतागण खतरा बता कर इस भूल सुधार को भी रोकना चाहते हैं। 1967 में लोक सभा में कांग्रेस को बहुमत मिला था, पर सात राज्यों में गैर-कांग्रेसी दलों की सरकारें बन गई थीं। जिन राज्यों में 1967 में प्रतिपक्षी दलों की सरकारें बनीं, उनमें तमिलनाडु में डीएमके की सरकार भी शामिल है। पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चा की सरकारें बनीं जबकि आज सीपीआई और सीपीएम साथ चुनाव के खिलाफ हैं। उससे पहले सन 1957 में ही केरल में नम्बूदिरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सरकार बन चुकी थी। 1967 में बिहार में लोक सभा की 53 सीटें थीं। उनमें 33 सीटें कांग्रेस को मिलीं। पर बिहार विधान सभा में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिल सका था। प्रतिपक्ष की सरकार बनी जिसके मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा थे। वह एक ऐसी अजीब सरकार थी, जिसके मंत्रिमंडल में जनसंघ और सीपीआई के मंत्री साथ-साथ काम कर रहे थे यानी मतदाताओं में उस समय भी इतना बुद्धि-विवेक मौजूद था कि वे यह जानते थे कि लोक सभा में उन्हें किसे जिताना है, और विधान सभा में किसे? आज तो सूचनाओं का विस्फोट हो रहा है, और गांव -गांव में अनेक लोगों के हाथों में स्मार्ट फोन आ गए हैं। उन्हें मालूम है कि उन्हें किसे वोट देना है। सन 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि राजनीतिक दल पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने पर मिलकर सोचें। उन्होंने कहा कि बहुत अधिक चुनाव होने से न सिर्फ धन की बर्बादी होती है, बल्कि सरकारों के कामकाज पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। 2016 में चुनाव आयोग ने भी कहा कि यदि राजनीतिक दल संविधान में बदलाव को तैयार हों तो हम एक साथ लोक सभा-विधानसभा के चुनाव कराने को तैयार हैं। एक साथ चुनाव कराने के विरोधी तर्क देते हैं कि उससे क्षेत्रीय दल कमजोर हो जाएंगे। पर 2014 के चुनाव इससे विपरीत हुआ। तब लोक सभा चुनाव के साथ ही ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव भी हुए थे। तीनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारें बनीं, जबकि केंद्र में भाजपा-नीत राजग की सरकार बनी यानी साथ चुनाव के बावजूद क्षेत्रीय मुद्दा का महत्त्व नहीं घटा। 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के साथ ही नरेन्द्र मोदी ने वन नेशन, वन इलेक्शन की जरूरत पर जोर देना शुरू कर दिया था। 2016 में ही उन्होंने कहा था कि एक साथ चुनाव कोई थोप नहीं सकता। लेकिन भारत के एक विशाल देश होने के नाते चुनाव की जटिलताओं और आर्थिक बोझ के मद्देनजर सभी पक्षों को इस पर चर्चा करनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने इसी 19 जून को इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाई तो कांग्रेस सहित कुछ दलों ने उस बैठक का बहिष्कार कर दिया। पर 21 दलों ने वन नेशन, वन इलेक्शन की इस पहल का समर्थन किया।
हालांकि इसका समर्थन करके कांग्रेस अपनी 1970-71 की गलती का प्रायश्चित कर सकती थी। पर लगता है कि ऐसा उसके स्वभाव में नहीं है। इधर 21 दलों के समर्थन के कारण यह अभियान देर-सवेर सफल होगा, ऐसा लगता है। पर इसके साथ जो कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां भी सामने आ सकती हैं, उनका समाधान ढूंढ़ना होगा। वैसे उन कठिनाइयों और उनके समाधान पर पहले भी चर्चाएं हो चुकी हैं। चर्चाओं से लगा कि उनके हल के रास्ते भी संविधान विशेषज्ञों के पास हैं। इस बीच, इस विषय पर सुझाव देने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा गठित होने वाला पैनल भी समय-सीमा के भीतर अपना बहुमूल्य सुझाव देगा। पैनल वन नेशन, वन इलेक्शन के सभी पहलुओं पर विचार करेगा। उसी रपट के आधार पर आगे कोई निर्णय होगा। विधि आयोग पहले ही इसके पक्ष में अपनी राय दे चुका है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा है कि दो मत नहीं कि साथ-साथ चुनाव के दूरगामी सकारात्मक प्रभाव होंगे। यह चुनाव सुधार का हिस्सा भी होगा। अच्छी बात है कि सरकार इस लक्ष्य को पाने के लिए आम सहमति की कोशिश कर रही है। सरकार इस पर चर्चा चलवा रही है। इसे थोपना नहीं चाहती। पर सवाल है कि इस मामले में कुरैशी के अच्छे विचारों का कोई असर उन दलों पर कभी पड़ेगा, जिनका एकमात्र उद्देश्य मोदी सरकार के हर काम का विरोध करना है। भले मोदी सरकार के किसी काम से सरकारी खजाने के हजारों करोड़ रु पये बचते हों! 1970-71 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जिस तरह अलग-अलग चुनाव की आधारशिला रख दी थी, उसी तरह मौजूदा सरकार को चाहिए कि विरोध की परवाह नहीं करके यह भूल सुधार कर ही दे।

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