ONE NATION ONE ELECTION

देश में एक साथ चुनाव का गणित

एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने से पूंजीगत खर्च जरूर बढ़ेगा, लेकिन दुनिया में सबसे सस्ता चुनाव भी हम ही करवा रहे हैं

ओपी रावत, (पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त)
एक देश, एक चुनाव यानी ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का मामला फिर से सुर्खियों में है। केंद्र सरकार इसे राष्ट्र का एजेंडा बताकर इस पर आगे बढ़ने को इच्छुक है, जबकि कई दलों ने इसके खिलाफ खुलकर अपनी राय जाहिर की है। हालांकि इसका व्यावहारिक पक्ष याद दिलाने वाले यह भूल जाते हैं कि साल 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं। उनमें व्यावहारिकता को लेकर किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई थी। साल 1967 के बाद चूंकि कई बार लोकसभा और कई राज्य विधानसभाएं जल्दी व अलग-अलग समय पर भंग होती रहीं, इसलिए चुनाव अलग-अलग वक्त पर होने लगे। और अब आलम यह है कि देश हर वक्त चुनाव की मुद्रा में रहता है।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ आज भी संभव है, लेकिन पहले हमें कई तरह के सांविधानिक संशोधन करने होंगे। पहला, कई राज्य विधानसभाओं की समय-सीमा कम करनी होगी, जबकि कुछ की बढ़ानी होगी। फिर, एक संशोधन यह भी होगा कि कालांतर में कोई विधानसभा यदि समय-पूर्व भंग होती है, तब क्या व्यवस्था की जाएगी? यह नौबत लोकसभा की भी आ सकती है, क्योंकि साल 1998 और 1999 में हम समय पूर्व आम चुनाव झेल चुके हैं। इन मुश्किलों से बचने के लिए अनुच्छेद 83, 172 और 356 में संशोधन अनिवार्य है। लोक प्रतिनिधित्व कानून में भी बदलाव करने की जरूरत होगी। चुनाव आयोग ने 2015 में ही केंद्र सरकार को इन पहलुओं से अवगत करा दिया है।
चुनाव संचालन संबंधी जरूरतों से भी हमें पार पाना होगा। सबसे पहले पर्याप्त इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें (ईवीएम) मंगवानी होंगी। फिलहाल 15-16 लाख ईवीएम से सभी चुनाव संपन्न कराए जाते हैं। इनमें लगभग 12-13 लाख ईवीएम की जरूरत लोकसभा चुनाव के लिए होती है, जबकि साथ-साथ होने वाले चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए दो-तीन लाख ईवीएम की दरकार होती है। लेकिन जब ‘एक देश, एक चुनाव’ की व्यवस्था लागू होगी, तो करीब 30-32 लाख ईवीएम की जरूरत होगी। चुनाव आयोग अब हर ईवीएम के साथ वोटर-वैरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) भी लगाने लगा है। यानी इतने ही वीवीपैट भी आयोग को जुटाने होंगे। इन सब जरूरतों को पूरा करने में लगभग साढ़े चार-पांच हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च आएगा।
नई व्यवस्था में अतिरिक्त केंद्रीय अद्र्धसैनिक बलों की भी जरूरत होगी। देश में 10 लाख के करीब मतदान केंद्र हैं। एक केंद्र पर यदि पांच सुरक्षा जवान तैनात किए जाएंगे, तब भी 50 लाख जवानों यानी 50 हजार कंपनियों की जरूरत होगी। जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान व बांग्लादेश की सीमा पर तैनात कंपनियों को दरकिनार कर दें, जिन्हें कतई वापस बुलाकर चुनाव-कार्यों में नहीं लगाया जा सकता, तो चुनाव आयोग को केवल 3,000 कंपनियां ही मुहैया कराई जाती हैं। यही वजह है कि आम चुनाव अब सात-आठ चरणों में होने लगे हैं। एक मतदान केंद्र से सुरक्षा बलों को वापस बुलाकर दूसरे मतदान केंद्र पर भेजने में वक्त भी जाया होता है, जिस कारण चुनाव ज्यादा दिनों तक खिंचने लगे हैं। अगर अद्र्धसैनिक बलों की मौजूदा संख्या के आधार पर ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को अमल में लाया जाएगा, तो संभव है कि चुनाव 12-15 चरणों तक खिंच जाएं और इन्हें पूरा कराने में तीन-चार महीने खर्च होंगे। यानी, हमें चुनाव-कार्यों में इस्तेमाल किए जाने वाले अद्र्धसैनिक बलों की नियुक्ति करनी होगी।
कई देशों में चुनाव की तिथि तक तय है। अमेरिका में तो नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण का दिन भी तय है। फिलीपींस में राष्ट्रपति से लेकर ग्राम पंचायत तक सभी चुनाव एक साथ होते हैं। हां, अंतर यह है कि विकसित देशों में जनता जागरूक रहती है, इसलिए सुरक्षा बलों की ज्यादा जरूरत नहीं होती। मगर अपने यहां राज्य पुलिस पर भी विश्वास नहीं किया जाता। कमोबेश सभी दल चुनावों में केंद्रीय बलों की मांग करते हैं। लिहाजा चुनाव आयोग पर दबाव बढ़ जाता है।
सच्चाई यह है कि दुनिया का सबसे सस्ता मतदान भारतीय चुनाव आयोग ही आयोजित कराता है। चुनाव में हमारा खर्च प्रति वोट लगभग एक डॉलर है। इसमें ईवीएम और वीवीपैट की एक-तिहाई कीमत (इन मशीनों को 15 साल के लिए आयोग मंगवाता है, यानी पांच साल के लिहाज से हर चुनाव में इसकी एक-तिहाई कीमत जोड़ी जाती है) भी शामिल है। दूसरे देशों में प्रति वोट यह खर्च दो डॉलर से लेकर 25 डॉलर तक है। लोकसभा व राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से इसमें कितनी बचत होगी, इसका फिलहाल कोई अध्ययन नहीं है, लेकिन कुछ मामलों में आयोग का खर्च निश्चय ही कम हो सकता है, जैसे अभी हर मतदान केंद्र पर चुनाव-कार्यों को पूरा कराने के लिए पांच कर्मी तैनात करने पड़ते हैं, जिसका अर्थ है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग कराने पर 10 कर्मियों की जरूरत होती है। लेकिन एक साथ चुनाव कराने से सात-आठ कर्मियों में ही मतदान कार्य पूरा हो सकता है। हालांकि, नई व्यवस्था में चुनाव आयोग का कैपिटल एक्सपेंडिचर यानी पूंजीगत खर्च निश्चय ही बढ़ जाएगा। मसलन, अभी 15-16 लाख ईवीएम से चुनाव पूरे होते हैं, लेकिन एक साथ चुनाव कराने से 30-32 लाख ईवीएम की जरूरत होगी। चूंकि इन मशीनों का जीवन 15 साल ही होगा, इसलिए हर तीन चुनाव के बाद इनकी खरीदारी में एकमुश्त खर्च करना चुनाव आयोग की मजबूरी होगी।
नई व्यवस्था से सियासी पार्टियों का खर्च जरूर घट सकता है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने अपनी रिपोर्ट में इस बार आम चुनाव में राजनीतिक पाटियों द्वारा लगभग 60,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का अनुमान लगाया है। किसी एक विधानसभा चुनाव में भी कमोबेश इतनी ही राशि प्रचार-कार्यों पर खर्च होती है। इसका अर्थ है कि दोनों चुनावों में लगभग 1.20 लाख करोड़ रुपये राजनीतिक पार्टियां खर्च करती हैं। ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ में चूंकि एक प्रचार-प्रसार से ही दोनों चुनाव संपन्न हो जाएंगे, इसलिए मुमकिन है कि पार्टियों का खर्च घटकर आधा हो जाए।

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